जब गाड़ियों का हुजुम एक साथ खड़ा हो जाता है जो हरकत करने में असमर्थ होता है या मंथर गति से रेंगता है तो इस क्रिया को जाम लगना कहा जाता है । जाम दिन प्रतिदिन लगता है । आज की तारीख में कोई भी शहर इससे अछूता नहीं है । किसी भी शहर में अब कोई ऐसी सड़क नहीं बची है जिस पर गाड़ियां फर्राटे से दौड़ सकें । घर से निकलने के बाद हर किसी को जाम में फंसना हीं होता है । बल्कि यूं कहें कि जाम सड़क पर निकलने की पहली शर्त होती है । सड़क पर जब वी आई पी गाड़ियां फर्र फर्र उड़ती हैं तो उन गाड़ियों में बैठने वालों के भाग्य से ईर्ष्या होती है । इन वी आई पी गाड़ियों से भी जाम लगते हैं । परेशानी तो तब होती है जब बगैर सूचना के इन गाड़ियों का रुट बदल दिया जाता है । ऐसा बेशक सुरक्षा कारणों से किया जाता होगा , लेकिन इसकी कीमत आम जनता को चुकानी पड़ती है ।
जी हां ! जाम की कीमत आम जनता चुकाती है । जाम के कारण गर्भवती स्त्री को वाध्यता मूलक जाम में हीं बच्चे को जनम देना पड़ता है । एम्बुलेंस में रोगी तड़प तड़प कर अपनी जान दे देता है । परीक्षार्थी समय से परीक्षा भवन नहीं पहुंच पाता । जाम के कारण उसकी परीक्षा नहीं हो पाती । हवाई या रेल की यात्रा निरापद करने के बाद लोग सड़क मार्ग के जाम में फंस जाते हैं । जाम ऐसा कि गाड़ियां चींटी के समान रेंगती हैं । ऐसे समय में पैदल चलने वाले बाजी मार ले जाते हैं । चार पहिए वाले वाहन टुकुर टुकुर देखते रह जाते हैं । दो पहिया वाले वाहन भी आड़े तिरक्षे होकर निकल लेते हैं । हमारे यहां एक कहावत है चार पैर वाले को बांधा जा सकता है , पर दो पैर वाले को नहीं । इसलिए दो पैर वाले और दुपहिया वाले आसानी से निकल लेते हैं । चार पहिया वाले अपनी बारी का इंतजार करते रह जाते हैं ।
अब सभी जाम के आदी हो गये हैं । वे जाम का आनंद लेने लगे हैं । वे एफ एम का मजा लेते हैं । वे गजल , गीत और गवनई सुनते हैं । जाम में फंसे लोग घंटों अपने प्रिय जनों से मोबाइल पर बतिआते हैं । कुछ रियर मिरर में पीछे वाली कार की रुपसी को देखते हैं । पर इसमें भी हाई रिस्क है । रुपसी के साथ कोई मुस्टंडा हुआ तो आपकी कूटाई भी हो सकती है । इसलिए जो भी करना है देख सुन के देख भाल के करना है । बगल में किसी मोहतरमा की गाड़ी खड़ी है तो उन्हें कनखियों से देखना है । घूरना तो बिल्कुल भी नहीं चलेगा । यह अपराध की श्रेणी में आता है । आपको सजा भी हो सकती है । ज्यादा देर तक खड़े रहने से नुकसान भी होता है । पर्यावरणविदों का कहना है कि यदि आप आधा घंटा भी जाम में फंसते हैं तो 15 सिग्रेट पीने के बराबर आपका फेफड़ा संक्रमित हो जाएगा । पर क्या करें इसके सिवा कोई चारा भी नहीं है ।
जाम में कांवड़िए भी फंसते हैं । उन्हें जाम से कोई फर्क नहीं पड़ता । वे नाचते कूदते अपने लिए जगह बना लेते हैं , “हम वो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है , चल पड़ेंगे जिस तरफ वो रास्ता हो जाएगा ” की तर्ज पर । पैदल चलने वाले को कोई कार वाला रास्ता नहीं देता , पर वह कांवड़ियों को रास्ता जरुर देता है । हम ट्राफिक जाम को लेकर सहनशील हैं , पर कांवड़िए असहिष्णु होते हैं । उनका भोले बुलाता है और वे चल पड़ते हैं । मार्ग की दुश्वारियां उनका कुछ बिगाड़ नहीं पातीं । वे विघ्न बाधाओं को पार करते हुए गाजे बाजे के साथ चल पड़ते हैं । जाम धरा का धरा रह जाता है ।
कार खरीदना सबकी हाॅबी बनती जा रही है । एक घर में अगर तीन सदस्य कमा रहे हैं तो उस घर को तीन हीं कार चाहिए । एक घर के अंदर तो दो गली में । ऐसे में गली के दोनों साइड में कारें खड़ी हो जाती हैं । आपको बीच से कार निकालनी होती है । आप कार निकालने में माहिर हैं तो ठीक , बर्ना एक खरोच तो लाजिमी हीं है । फिर तो लड़ाई अवश्यम्भावी हो जाती है । मरने मारने की नौबत आ जाती है । जो समझदार हैं, वे पीछे हट जाते हैं । यदि दोनों की कैटगरी मरने मारने की हुई तो लड़ाई होती है और जम के होती है । दोनों तरफ से बीच बचाव करने वाले भी होते हैं । लेकिन कुछ तमाशा देखने वाले भी होते हैं । झगड़ा बढ़ता है । झगड़ा शांत भी होता है । बातों बातों में बात तय होती है या बातों से बात और बढ़ती है । जाम बना रहता है । लेकिन जाम को तो खुलना हीं है । जाम खुलता है लेकिन कई तरह के अप्रिय प्रसंगों के घटने के बाद ।
एम्बुलेंस हो या अफसर की गाड़ी सबको जाम में फंसना होता है । आम जनता भी जाम में फंसती है । उसका सुबह शाम जाम में फंसना प्रभात वंदन और सांध्य वंदन की तरह होता है । ट्राफिक पुलिस दावा करती है कि उसके पास जाम समस्या का समाधान है । वह जाम मुक्त शहर को करेगी । वह अलग अलग ढंग से योजना बनाती है । या तो धरातल पर उनका क्रियान्यवन नहीं हो पाता या होता भी है तो वह सफलीभूत नहीं होता । क्या किया जाय ? कुछ भी समझ से परे है । जाम जाम ही है । कल भी था । आज भी है । कल रहे या ना रहे हम कह नहीं सकते । फिलहाल तो गालिब का एक शे’र यहां के लिए बहुत प्रासांगिक लगता है –
कोई उम्मीद बर नहीं आती ।
कोई सूरत नजर नहीं आती ।
एस. डी. ओझा
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और स्वतंत्र टिप्पणीकार है)