हम यह कहते हुए नहीं थकते कि क्षेत्रीय भाषा व बोलियाँ हमारी ऐतिहासिक धरोहरें हैं, पर आलम यह है कि हर पखवाड़े एक भाषा की मौत होती है. सन् 2009 में खोरा भाषा बोलने वाली एकमात्र महिला बोरो की मौत हो गई थी. उसी तरह जब सारा राष्ट्र 60 वां गणतंत्र दिवस मना रहा था तो उस दिन एक भाषा की भी मौत हो रही थी. 26 जनवरी सन् 2010 को 85 साल की अंडमान निवासी बोआ सीनियर की मौत हो गई, जो बो भाषा की एकमात्र जानकार थीं. एक अज्ञात बीमारी की वजह से उनका पूरा कबीला मौत की आगोश में जा चुका था. एकमात्र बची बो अंदमान में अपने बच्चों के साथ आकर बस गईं. बच्चे हिंदी/अंग्रेजी माध्यम से पले बढ़े और बो भाषा नहीं सीख पाए. अब अकेली बची बोआ सीनियर पूरी जिंदगी गूँगी बनी रहीं. BBC के पास यह भाषा एक कैसेट के रूप में सुरक्षित है, पर बोलने वाला कोई नहीं है.
इस समय दुनिया की 2700 भाषाओं पर मौत की तलवार लटकी हुई है. आदिवासी भाषाएँ बच पाएंगी यह अब मुश्किल लग रहा है, क्योंकि हम अंग्रेजों की भाँति आदिवासियों को सभ्य बनाने पर तुल गए हैं. उनके बच्चे मात्र हिंदी या अंग्रेजी ही बोल रहे हैं. ऐसे में उनकी मातृभाषा कैसे जीवित रहेगी ? भाषा को जीवित करने के लिए तीब्र इच्छाशक्ति व कर्मठता की आवश्यकता होती है. 19वीं सदी के अंत तक हिब्रू भाषा मृत प्राय हो चुकी थी. उस मृत भाषा को पुनः जीवित कर आम बोलचाल की भाषा बनाने के लिए इसराइलों ने जी जान लगा दिए. परिणाम सामने है. आज इसराइल की आम बोल चाल की भाषा हिब्रू है.
आज समय की माँग यह है कि स्थानीय भाषाओं के जानकारों को ही निगमों, निकायों, पंचायतों, बैंकों और सरकारी दफ्तरों में नौकरी दी जाय. नई पीढ़ी में अंग्रेजी के बर्चस्व के कारण अनायास ही अपनी मातृ भाषा को प्रति जो हीनता की भावना पैदा होती है-वह इससे दूर होगी और स्थानीय भाषाएँ फलेंगी व फूलेंगी.
ई. एस. डी. ओझा
हर पखवाड़े एक भाषा की मौत
